@ 2013 बस यादें सिर्फ यादें ........................
पश्चिम में डूबते सूरज ने
हज़ारों रंग थे बिखराए
कई तो आंखो के आगे
पहले कभी नहीं थे आए!
घड़ा चांद का आकाश में लटका
उड़ेल रहा था चांदनी
दृष्टि की सीमा तलक
ठोस, गहरे अंधेरे से बनी
बिखरी हुई थीं पहाड़ियाँ
नीरवता के बोल बोलती
उस घाटी में बिजली नहीं थी
कोई आहट, कोई आवाज़
सरसराहट भी कोई नहीं थी
ख़ामोश बिल्कुल… ख़ामोश!
धरती के उस कोने में
मैं विशुद्ध प्रकृति से मिला था
अपने कमरे की खिड़की से
अनछुए, अविकार, अविचल
निसर्ग के सच को देख रहा था
रंग, चांदनी, नीरवता
मन को हर्षित करते थे
हल्का अंधियारा, निपट एकांत
और थोड़ा-सा सूनापन
इस मन में शांति भरते थे
मैं आनंद की झील बना था
जिसमें लहर कोई ना उठती थी
संगीत भरी मन की नदिया थी
जो ना बहती थी ना रुकती थी
कई दिन बीत चुके हैं लेकिन
आज भी संध्या जब-जब
घड़ा चांद का भर-भर
चांदनी को बिखराती है
अनायास ही वो मुझे
इक खिड़की की याद दिलाती है........................
::::::::::::नितीश श्रीवास्तव ::::::::::
पश्चिम में डूबते सूरज ने
हज़ारों रंग थे बिखराए
कई तो आंखो के आगे
पहले कभी नहीं थे आए!
घड़ा चांद का आकाश में लटका
उड़ेल रहा था चांदनी
दृष्टि की सीमा तलक
ठोस, गहरे अंधेरे से बनी
बिखरी हुई थीं पहाड़ियाँ
नीरवता के बोल बोलती
उस घाटी में बिजली नहीं थी
कोई आहट, कोई आवाज़
सरसराहट भी कोई नहीं थी
ख़ामोश बिल्कुल… ख़ामोश!
धरती के उस कोने में
मैं विशुद्ध प्रकृति से मिला था
अपने कमरे की खिड़की से
अनछुए, अविकार, अविचल
निसर्ग के सच को देख रहा था
रंग, चांदनी, नीरवता
मन को हर्षित करते थे
हल्का अंधियारा, निपट एकांत
और थोड़ा-सा सूनापन
इस मन में शांति भरते थे
मैं आनंद की झील बना था
जिसमें लहर कोई ना उठती थी
संगीत भरी मन की नदिया थी
जो ना बहती थी ना रुकती थी
कई दिन बीत चुके हैं लेकिन
आज भी संध्या जब-जब
घड़ा चांद का भर-भर
चांदनी को बिखराती है
अनायास ही वो मुझे
इक खिड़की की याद दिलाती है........................
::::::::::::नितीश श्रीवास्तव ::::::::::
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